Sunday, 25 September 2011

मेरे दोषी हो तुम.....

मेरे दोषी हो तुम.....

एक रोज़ यूँ ही उठा लिया था तुमने
पत्थर समझकर मुझे...
उल्टा-पलटा..देखा मुझे
फिर इठलाकर कहा था...
"मैं इस पत्थर को हीरा बना पाने का दम हूँ रखता"

मैं तुम्हारे हाथों में आ,
नाज़ करने लगी खुद पर..
खुद को धीरे धीरे
तुम्हारे हाथों निखरता महसूस करने लगी..
श्रद्धा, प्यार, विश्वास, आस्था
इन एहसासों से जान पहचान करने लगी..

तुम्हारा मुझपर पड़ता हर वार
मैं सह लेती मुस्कुराकर
तुम मुझे तराश कर जीने के काबिल जो बना रहे थे..

पर आज हैरान हूँ मैं
क्यूँ तुमने पत्थर समझ कर फैंक दिया मुझे..
तुम तो तराशने लाये थे न इस पत्थर को
कैसे कमियां देख सकते हो अपनी ही कृति में..

अब तो मैं तुम्हारी ही कृति हूँ
कमी मुझमें नहीं तुम्हारे तराशने में रह गयी
पारखी होने का दावा तुमने ही किया था
सच कहो...क्या आज मेरे दोषी नहीं हो तुम??????

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