इतना कवि तो कहीं कोई भी नहीं
जितने व्यापक हो तुम..
आहत करते शब्द फिर भी
उँगलियों को दुखाकर, शरीक़ हो जाते हैं
निर्लज भाषा के निराकार शोर में
आत्मा, याद, सोच, एहसास...सब डूबे
चुपचाप हैं अपने ही ज़हन में...
पर देखो न...
ये उंगलियाँ फिर भी मानती नहीं अपनी औकात
कर रही हैं आज भी जतन
तुम्हें शब्दों में ढाल एक सुन्दर कविता रचने का
ऐसी कविता तो कहीं कोई नहीं
क़ि उठ खड़ी होती जो तुम्हारे व्यक्तित्व के बराबर
नाप लेती चंद शब्दों से धरती आसमान
रख पाती पैर समय के सर पर...
तुम्हें पिरो शब्दों के मोतियों में
सिरों को जोड़, कवितामय
माला बना पाना
कहाँ कर पायेगा कोई..
इतना तो कवि कहीं कोई नहीं
ऐसी तो कविता कहीं कोई नहीं........
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