Wednesday, 28 December 2011

थोड़ा थोड़ा सा...सब कुछ :)


थोड़ा थोड़ा सा...सब कुछ :)


जहाँ हों बस थोड़े से फूल
थोड़ी सी मिट्टी
थोड़ी सी हवा
सौंधी सी ख़ुशबू
खड़ी रह पाऊं पैर जमाकर जहाँ
बस...ऐसी ही थोड़ी सी ज़मीन चाहिए...

जो हो सीधी सादी सी
भोली भाली सी
फूलों की डाली सी
लगे जो जीए जाने जैसी सी
बस...ऐसी ही छोटी सी ज़िन्दगी चाहिए...

थोड़ा थोड़ा सा हो लेना 
थोड़ा थोड़ा सा हो देना
बिन कहे सब कह जाना
अनकहा सब सुन पाना
हारूं कभी तो मिले हर पल साथ उसका
बस...ऐसी एक सच्ची सी दोस्ती चाहिए...

न कहूँ कुछ
न सुनूँ किसी को 
हो अनजाना सब कुछ
बुनती रहूँ जिसे मैं तन्हा
बस...ऐसी ही थोड़ी सी खामोशी चाहिए...

ढूंढ सकूँ जहां खुद को मैं
पा सकूँ अर्थ जिसमें मैं
जी सकूँ जिसके साथ
जिसके लिए मैं
बस...ऐसी ही अपनी कुछ पहचान चाहिए...

थोड़ा थोड़ा सा हौसला
थोड़ी थोड़ी सी रौशनी
आज़ाद हो उड़ान जहां
थोड़ी थोड़ी सी उम्मीद जहां
बस...ऐसा ही मुट्ठी भर आकाश चाहिए...

हाँ..मुझे अपनी पहचान चाहिए
हो जाएँ जहां
थोड़े थोड़े से ही सही..अरमान पूरे
बस...ऐसी ही ज़िन्दगी का वरदान चाहिए............

Saturday, 8 October 2011

आओ क़ि कुछ यूँ करें.....


आओ क़ि कुछ यूँ करें...

रख दें पलकों की हथेली पे कागज़ के ख़्वाब
और हर एक ख़्वाब फिर कश्ती बन
लहराता रहे नींदों के समंदर में...

चलो शाम के साए में
लफ़्ज़ों से फिर एक मुलाक़ात करें
फर्श एक कागज़ बने
उँगलियाँ बन जाएँ कलम
और परवानों के परों से जुड़ कर 
फर्श पर लिखी नज्मों से
जलाते रहे हम शम्मा का दामन...

आओ ज़रा छत पर छिटकी चांदनी को 
अपनी हथेलियों में समेट
रंग लें चेहरे अपने
और बाँट लें चाँद को आधा आधा
कर दें उस फलक को बेनूर और तनहा फिर...

चलो साथ मेरे तारीख़ की किताब में चलें
शहंशाह को करें आदाब 
और एक अर्ज़ करें..
क़ि तेरे ताज की किसी दीवार पर
हमारा नाम भी लिखने की इजाज़त दे दे

आओ क़ि कुछ यूँ करें.....

Sunday, 25 September 2011

मेरे दोषी हो तुम.....

मेरे दोषी हो तुम.....

एक रोज़ यूँ ही उठा लिया था तुमने
पत्थर समझकर मुझे...
उल्टा-पलटा..देखा मुझे
फिर इठलाकर कहा था...
"मैं इस पत्थर को हीरा बना पाने का दम हूँ रखता"

मैं तुम्हारे हाथों में आ,
नाज़ करने लगी खुद पर..
खुद को धीरे धीरे
तुम्हारे हाथों निखरता महसूस करने लगी..
श्रद्धा, प्यार, विश्वास, आस्था
इन एहसासों से जान पहचान करने लगी..

तुम्हारा मुझपर पड़ता हर वार
मैं सह लेती मुस्कुराकर
तुम मुझे तराश कर जीने के काबिल जो बना रहे थे..

पर आज हैरान हूँ मैं
क्यूँ तुमने पत्थर समझ कर फैंक दिया मुझे..
तुम तो तराशने लाये थे न इस पत्थर को
कैसे कमियां देख सकते हो अपनी ही कृति में..

अब तो मैं तुम्हारी ही कृति हूँ
कमी मुझमें नहीं तुम्हारे तराशने में रह गयी
पारखी होने का दावा तुमने ही किया था
सच कहो...क्या आज मेरे दोषी नहीं हो तुम??????

Friday, 23 September 2011

ऐसी तो कविता कहीं कोई नहीं........


इतना कवि तो कहीं कोई भी नहीं
जितने व्यापक हो तुम..

आहत करते शब्द फिर भी
उँगलियों को दुखाकर, शरीक़ हो जाते हैं
निर्लज भाषा के निराकार शोर में
आत्मा, याद, सोच, एहसास...सब डूबे
चुपचाप हैं अपने ही ज़हन में...

पर देखो ...
ये उंगलियाँ फिर भी मानती नहीं अपनी औकात
कर रही हैं आज भी जतन
तुम्हें शब्दों में ढाल एक सुन्दर कविता रचने का

ऐसी कविता तो कहीं कोई नहीं
क़ि उठ खड़ी होती जो तुम्हारे व्यक्तित्व के बराबर
नाप लेती चंद शब्दों से धरती आसमान
रख पाती पैर समय के सर पर...

तुम्हें पिरो शब्दों के मोतियों में
सिरों को जोड़कवितामय
माला बना पाना
कहाँ कर पायेगा कोई..

इतना तो कवि कहीं कोई नहीं
ऐसी तो कविता कहीं कोई  नहीं........

क्या तुम आओगे लेने मुझे...???


पहले...मैं अपनी इच्छाओं में
थी तुम्हारी...
अब...अपने संकल्प से
हूँ तुम्हारी...
ये दोनों ही सूरतें एक सी नहीं......

एक बार लौट रही हूँ वहाँ
जहां से चली थी मैं पीछे तुम्हारे
क्यूंकि...
इच्छाओं की कोई सीमा नहीं
और संकल्प...
वो तो बंधा होता है अपनी परिधि, अपनी अवधि से.....

क्या तुम आओगे लेने मुझे...???

सको तो आना समय रहते
करीब मेरे...
चाहती हूँ कि इस बार...
तुम थामो हाथ मेरा  
और ले चलो साथ अपने
इच्छाओं
संकल्पों की परिधि की,
सीमाओं से परे.....