EHSAAS
Thursday, 5 January 2012
EHSAAS: मत रोको मुझे...
EHSAAS: मत रोको मुझे...: उड़ना है, वहाँ दूर आसमान में मुझे डूब जाना है सागर की गहराई में भर लाने हैं आँचल में अपने चाँद, तारे तमाम... सूरज की रौशनी ...
मत रोको मुझे...
उड़ना है, वहाँ दूर आसमान में मुझे
डूब जाना है सागर की गहराई में
भर लाने हैं आँचल में अपने
चाँद, तारे तमाम...
सूरज की रौशनी
चाँद की चांदनी
कटोरी भर भर कर पी जाना चाहती हूँ मैं...
अरे अरे...रूठते क्यूँ हो ?
तुम्हें भी
सूरज परोसूंगी, चाँद की थाली में
सितारों को चुन चुन कर
लड्डू बना खिलाऊँगी तुम्हें
ले आउंगी तुम्हारे लिए भी
छोटी छोटी, रंग बिरंगी
प्यारी सी मछलियों के सतरंगी सपने
हाँ हाँ..मत हंसो मुझ पर
मालूम है मुझे
नहीं कर पाउंगी ऐसा कुछ भी
पर...
कल्पना के घोड़े दौड़ाकर
इन एहसासों को महसूस तो कर ही सकती हूँ न ?
इस पर तो कोई पाबंदी नहीं है ?
चलो तुम भी
जल्दी करो
मेरी कल्पनाओं के पर लगा
उड़ चलो साथ मेरे :)
Monday, 2 January 2012
EHSAAS: अंधी गुफ़ा.....
EHSAAS: अंधी गुफ़ा.....: फिजां में गमों की झंकार मंडरा रही है , हवा के लबों पर मातमी धुन गूंजे जा रही है , मगर ... आसमान फिर भी खामो...
अंधी गुफ़ा.....
फिजां में
गमों की झंकार मंडरा रही है,
हवा के लबों पर
मातमी धुन गूंजे जा रही है,
मगर...आसमान फिर भी खामोश है
ज़मीन अपनी धुरी पर रुकी
सोच रही है
कि..क्या हो गया है
कुछ तो कहीं खो गया है...
मैं सहमी सी,
घबराई सी,
एक सर्द, अंधी गुफ़ा के दरवाज़े पर खड़ी हूँ..
चीखना चाहती हूँ
चिल्लाना चाहती हूँ
भयानक उदासी के तिलिस्म को तोड़ना चाहती हूँ
मगर मेरी आवाज़
मुझसे कहीं बिछड़ गयी है,
मेरे जज़्बात, तमाम ख्वाहिशें
बेज़ुबां सी हो गयी हैं,
हर एहसास ख़ामोशी की स्याही में
मुंह लपेटे पढ़ा है
पहचान पाना मुश्किल हो चला है..
कोई लफ्ज़ मेरे दर्द को सहला नहीं पा रहा है
कोई अलफ़ाज़ मेरा हमनवा,
मेरा मसीहा,
मेरा सहारा नहीं बन पा रहा है..
लगता है कि जैसे मैं
घड़ी दो घड़ी में
बर्दाश्त करने की काबिलियत खोकर
इस अंधी गुफा में ढेर हो जाऊंगी
यूँ ही चुपचाप
बिन कुछ कहे
दम तोड़ जाऊंगी....
Wednesday, 28 December 2011
थोड़ा थोड़ा सा...सब कुछ :)
थोड़ा थोड़ा सा...सब कुछ :)
जहाँ हों बस थोड़े से फूल
थोड़ी सी मिट्टी
थोड़ी सी हवा
सौंधी सी ख़ुशबू
खड़ी रह पाऊं पैर जमाकर जहाँ
बस...ऐसी ही थोड़ी सी ज़मीन चाहिए...
जो हो सीधी सादी सी
भोली भाली सी
फूलों की डाली सी
लगे जो जीए जाने जैसी सी
बस...ऐसी ही छोटी सी ज़िन्दगी चाहिए...
थोड़ा थोड़ा सा हो लेना
थोड़ा थोड़ा सा हो देना
बिन कहे सब कह जाना
अनकहा सब सुन पाना
हारूं कभी तो मिले हर पल साथ उसका
बस...ऐसी एक सच्ची सी दोस्ती चाहिए...
न कहूँ कुछ
न सुनूँ किसी को
हो अनजाना सब कुछ
बुनती रहूँ जिसे मैं तन्हा
बस...ऐसी ही थोड़ी सी खामोशी चाहिए...
ढूंढ सकूँ जहां खुद को मैं
पा सकूँ अर्थ जिसमें मैं
जी सकूँ जिसके साथ
जिसके लिए मैं
बस...ऐसी ही अपनी कुछ पहचान चाहिए...
थोड़ा थोड़ा सा हौसला
थोड़ी थोड़ी सी रौशनी
आज़ाद हो उड़ान जहां
थोड़ी थोड़ी सी उम्मीद जहां
बस...ऐसा ही मुट्ठी भर आकाश चाहिए...
हाँ..मुझे अपनी पहचान चाहिए
हो जाएँ जहां
थोड़े थोड़े से ही सही..अरमान पूरे
बस...ऐसी ही ज़िन्दगी का वरदान चाहिए............
Saturday, 8 October 2011
आओ क़ि कुछ यूँ करें.....
आओ क़ि कुछ यूँ करें...
रख दें पलकों की हथेली पे कागज़ के ख़्वाब
और हर एक ख़्वाब फिर कश्ती बन
लहराता रहे नींदों के समंदर में...
चलो शाम के साए में
लफ़्ज़ों से फिर एक मुलाक़ात करें
फर्श एक कागज़ बने
उँगलियाँ बन जाएँ कलम
और परवानों के परों से जुड़ कर
फर्श पर लिखी नज्मों से
जलाते रहे हम शम्मा का दामन...
आओ ज़रा छत पर छिटकी चांदनी को
अपनी हथेलियों में समेट
रंग लें चेहरे अपने
और बाँट लें चाँद को आधा आधा
कर दें उस फलक को बेनूर और तनहा फिर...
चलो साथ मेरे तारीख़ की किताब में चलें
शहंशाह को करें आदाब
और एक अर्ज़ करें..
क़ि तेरे ताज की किसी दीवार पर
हमारा नाम भी लिखने की इजाज़त दे दे
आओ क़ि कुछ यूँ करें.....
Sunday, 25 September 2011
मेरे दोषी हो तुम.....
मेरे दोषी हो तुम.....
एक रोज़ यूँ ही उठा लिया था तुमने
पत्थर समझकर मुझे...
उल्टा-पलटा..देखा मुझे
फिर इठलाकर कहा था...
"मैं इस पत्थर को हीरा बना पाने का दम हूँ रखता"
मैं तुम्हारे हाथों में आ,
नाज़ करने लगी खुद पर..
खुद को धीरे धीरे
तुम्हारे हाथों निखरता महसूस करने लगी..
श्रद्धा, प्यार, विश्वास, आस्था
इन एहसासों से जान पहचान करने लगी..
तुम्हारा मुझपर पड़ता हर वार
मैं सह लेती मुस्कुराकर
तुम मुझे तराश कर जीने के काबिल जो बना रहे थे..
पर आज हैरान हूँ मैं
क्यूँ तुमने पत्थर समझ कर फैंक दिया मुझे..
तुम तो तराशने लाये थे न इस पत्थर को
कैसे कमियां देख सकते हो अपनी ही कृति में..
अब तो मैं तुम्हारी ही कृति हूँ
कमी मुझमें नहीं तुम्हारे तराशने में रह गयी
पारखी होने का दावा तुमने ही किया था
सच कहो...क्या आज मेरे दोषी नहीं हो तुम??????
एक रोज़ यूँ ही उठा लिया था तुमने
पत्थर समझकर मुझे...
उल्टा-पलटा..देखा मुझे
फिर इठलाकर कहा था...
"मैं इस पत्थर को हीरा बना पाने का दम हूँ रखता"
मैं तुम्हारे हाथों में आ,
नाज़ करने लगी खुद पर..
खुद को धीरे धीरे
तुम्हारे हाथों निखरता महसूस करने लगी..
श्रद्धा, प्यार, विश्वास, आस्था
इन एहसासों से जान पहचान करने लगी..
तुम्हारा मुझपर पड़ता हर वार
मैं सह लेती मुस्कुराकर
तुम मुझे तराश कर जीने के काबिल जो बना रहे थे..
पर आज हैरान हूँ मैं
क्यूँ तुमने पत्थर समझ कर फैंक दिया मुझे..
तुम तो तराशने लाये थे न इस पत्थर को
कैसे कमियां देख सकते हो अपनी ही कृति में..
अब तो मैं तुम्हारी ही कृति हूँ
कमी मुझमें नहीं तुम्हारे तराशने में रह गयी
पारखी होने का दावा तुमने ही किया था
सच कहो...क्या आज मेरे दोषी नहीं हो तुम??????
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