Monday, 2 January 2012

अंधी गुफ़ा.....


फिजां में 
गमों की झंकार मंडरा रही है,
हवा के लबों पर
मातमी धुन गूंजे जा रही है,
मगर...आसमान फिर भी खामोश है
ज़मीन अपनी धुरी पर रुकी
सोच रही है
कि..क्या हो गया है
कुछ तो कहीं खो गया है...

मैं सहमी सी,
घबराई सी,
एक सर्द, अंधी गुफ़ा के दरवाज़े पर खड़ी हूँ..
चीखना चाहती हूँ
चिल्लाना चाहती हूँ
भयानक उदासी के तिलिस्म को तोड़ना चाहती हूँ

मगर मेरी आवाज़
मुझसे कहीं बिछड़ गयी है,
मेरे जज़्बात, तमाम ख्वाहिशें
बेज़ुबां सी हो गयी हैं,
हर एहसास ख़ामोशी की स्याही में
मुंह लपेटे पढ़ा है
पहचान पाना मुश्किल हो चला है..

कोई लफ्ज़ मेरे दर्द को सहला नहीं पा रहा है 
कोई अलफ़ाज़ मेरा हमनवा,
मेरा मसीहा,
मेरा सहारा नहीं बन पा रहा है..

लगता है कि जैसे मैं
घड़ी दो घड़ी में
बर्दाश्त करने की काबिलियत खोकर
इस अंधी गुफा में ढेर हो जाऊंगी
यूँ ही चुपचाप
बिन कुछ कहे
दम तोड़ जाऊंगी....

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