Saturday, 8 October 2011

आओ क़ि कुछ यूँ करें.....


आओ क़ि कुछ यूँ करें...

रख दें पलकों की हथेली पे कागज़ के ख़्वाब
और हर एक ख़्वाब फिर कश्ती बन
लहराता रहे नींदों के समंदर में...

चलो शाम के साए में
लफ़्ज़ों से फिर एक मुलाक़ात करें
फर्श एक कागज़ बने
उँगलियाँ बन जाएँ कलम
और परवानों के परों से जुड़ कर 
फर्श पर लिखी नज्मों से
जलाते रहे हम शम्मा का दामन...

आओ ज़रा छत पर छिटकी चांदनी को 
अपनी हथेलियों में समेट
रंग लें चेहरे अपने
और बाँट लें चाँद को आधा आधा
कर दें उस फलक को बेनूर और तनहा फिर...

चलो साथ मेरे तारीख़ की किताब में चलें
शहंशाह को करें आदाब 
और एक अर्ज़ करें..
क़ि तेरे ताज की किसी दीवार पर
हमारा नाम भी लिखने की इजाज़त दे दे

आओ क़ि कुछ यूँ करें.....